शनिवार, 4 दिसंबर 2010

उड़ान की प्रगतिशीलता !

उड़ान की प्रगतिशीलता....!

ब्रम्हाण्ड में ऊर्जा के अविरल स्त्रोत होते है । विचारों की संप्रेषणशीलता आकर्षण के सकारात्मक बनाम नकरात्मक प्रतीकों से मूर्त-रूप प्राप्त करती है । जीवन की सार्थकता प्रगतिशील प्रयासों में है, न कि रूढ़िवादी संदर्भो में । पं. विजय शंकर मेहता जी हनुमान चालीसा के माध्यम से जीवन प्रबंधों की व्याख्या इन्हीं मायनों में की है । हम सबके अद्धेय, परम पूज्यनीय छत्तीसगढ़ के पितृ पुरूष स्व. लखीराम जी अग्रवाल (काका जी) ऐसे ही जीवंत प्रतीक है, जिन्होंने विकास पथ पर नव छत्तीसगढ़ के सूर्य रश्मियों को ऊर्जा दी और वे सदैव हम सभी को कर्म पथ पर उड़ान का संदेश देते रहे उन्हीं की प्रेरणा को अपने शब्द में ‘‘ उड़ान की गतिशीलता शीर्षक’’ से व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूं ।
            उड़ान में है प्रगतिशीलता, एक प्रगतिशील छलांग तो मारो रे !
        रूढ़िवादी नहीं जीवनपथ, प्रगतिशील कर्म कर डालो रे !
    जीवनपथ की शूलशिखा में जो पला बढ़ा है  -2
        सामाजिकता के आयामों में गिरके जो पुनः खड़ा है -2
    जिसनें स्वर्णाभूषणों को त्याजा और पाहन तोड़ा है
        जो पूंजीवाद रथ का घोड़ा नहीं जिसने खुद को हम सब से जोड़ा है
    वह इस धरा मैं मरा नहीं
        वह तो कृष्णामयी अमर है !
    ढूढ़ रहा तू किसको खुद में तुझे कहॉं खबर है
        कर्मरथ पर मरता नहीं है कोई, वह तो अजर है वह अमर है  !
इसलिए,
    राग विराग की बांहे छोड़ो, प्रेम-स्नेह का बल्ला संभालो रे
        चट्टानों से दूध निकालो पर पानी तो बचा लो रे
    है रूकी धार शिलाएॅं जहॉं, दो वृक्ष दो कोपल तो लगा लो रे
        सूर्य ऋचाओं का अस्तित्व न तोड़ो, तारे बन टिमटिमा लो रे
    उड़ान में है प्रगतिशीलता, एक प्रगतिशील छलांग तो मारो रे !
        देखो ! देखो -कहीं उद्देश्य जन्म का निशीथ न हो पाए-2
    मान-अभिमान का काल न हो जाए-2
        आंतरिकता को जोड़ो घर -देश को संभालों रे
    फंसा लोकतंत्र चौपायो में, कोई तो बाहर निकालो रे
        उड़ान में है प्रगतिशीलता, एक प्रगतिशील छलांग तो मारो रे !
कहा गया है कि:-
    प्रेम-स्नेह, सद्भाव सामंजस्य ही उड़ान की प्रगतिशीलता है
        जैसा ऊपर - वैसा नीचे, जैसा अंदर-वैसा बाहर फूल खिलता है
    सेल्फ प्रमोशन एवं छपास से दो दिन से ज्यादा का सुख नहीं मिलता है इसलिए,
    तोड़ो-तोड़ो, तोड़ो-तोड़ो अहम, जागृत स्वयं को कर डालो रे,
        उड़ान में है प्रगतिशीलता, एक प्रगतिशील छलांग तो मारो रे !
        सोने की जंजीरों में जकड़ा जिसने खुद को
        वह सोना का कहॉं-खरा-खरा है ?
    धातुई होती है चुभन इसलिए
        स्वर्णिम जीवन भी तकलीफों से भरा है ।
        लेकिन कर्मपथ पर बढ़ने वाला, आप बताएॅं कहॉं - मरा है, कहॉं मरा है ?  
    अतः मृत्यु शैय्या यदि मिले यमराज भी तो प्रगतिशील धक्का मारो रे,
        जीवन के मैदान पर हर बाल में चौका-छक्का मारो रे,
    उड़ान में है प्रगतिशीलता, एक प्रगतिशील छलांग तो मारो रे ।।
                                                                                   मुकेश अग्रवाल

2 टिप्‍पणियां:

  1. उड़ान में है प्रगतिशीलता, एक प्रगतिशील छलांग तो मारो रे !

    देखो ! देखो -कहीं उद्देश्य जन्म का निशीथ न हो पाए

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