गुरुवार, 25 नवंबर 2010

मलेरिया क्या है ?

मलेरिया क्या है ?
मलेरिया एक वाहक जनित इन्फेक्शन है, जो एक विशेष जाति के मादा मच्छर के काटने से होता है । ये मच्छर है -एनोफिलिस । ये मच्छर प्लासमोडियम नाम कारक जीवाणु को शरीर में पहुँचाते हैं । भारत जैसे विकासशील देश में प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में मलेरिया की पहचान है ।मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है

मलेरिया कैसे होता है ?
लाल रक्त कण का इन्फेक्शन: कारक घटक प्लास्मोडियम की चार उपजातियॉं होती है । ये हैं -वाइवेक्स, फेल्सियेरम, ऑवेल और मलेरी । इनमें पहली अधिक सामान्य रूप में पाई जाती है । ये प्रोटोजोआ पैरासाइट है । जो मच्छरों द्वारा काटने पर हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं । भीड़-भाड़ वाले इलाकों, गन्दे नालों, अंधेरी जगहों जहॉं मच्छरों का प्रजनन अधिक होता है वहॉं यह रोग अधिक होता है, वहॉं पर यह रोग अधिक होता है । मादा एनोफिलिस मच्छर अंधेरा होने पर काटते है कि झुग्गी झोपड़ी और नीम अंधेरे में यह अधिक होता है ।
यह पैरासाइट हमारे शरीर में और मच्छर में कई स्तर में विकसीत होते हैं । मच्छर के शरीर में विकास होने पर यह स्वस्थ व्यक्तियों में प्रवेश करने में सक्षम हो जाता है और मच्छर काटने पर हमारे शरीर में प्रवेश करता है । मानव शरीर में इसकी दो अवस्थाएँ होती है - एक तो लीवर में और दूसरी लाल रक्त कण में । दोनों अवस्थाओं के परिणाम स्वरूप इन अवयवों की क्षति होकर मलेरिया के लक्षण प्रबल होते हैं ।
एक असक्रिय अवस्था जिसे एक्सो-एरिथ्रोसाइटिक अवस्था कहते हैं, इसमें लाल रक्तकण फूट जाते हैं । जिससे हजारों पैरासाइट रक्त प्रवाह में आ जाते हैं । ये मच्छर काटने पर कैरियर की भूमिका निभाते हैं । जब किसी संक्रमित व्यक्ति को मच्छर काटता है तथा ये सक्रिय पैरासाइट मच्छर में चले जाते हैं और मच्छर में सक्रिय होकर अन्य स्वस्थ व्यक्ति को मच्छर मलेरिया का शिकार बना देता है ।
अक्सर पैरासाइट का लोड अत्याधिक होने पर (विशेषकर प्लास्मोडियम फैल्सिमैरम के कारण)संक्रमित लाल रक्तकण और पैरासाइट के कारण सूक्ष्म रक्त वाहिनियॉं अवरुद्ध होकर फट जाती हैं । ये मस्तिष्क में प्रवेशकर तीव्र बायोकेमिकल असंतुलन पैदा कर देते हैं । इसके कारण जो स्थिति उत्प होती है, उसे सेरिब्रल मलेरिया और रीनल फेलयर (कालापानी का ज्वर) भी कहा जाता है ।
प्रसूता स्त्री में मलेरिया घातक होता है । बच्चों में भी सभी विकासशील देशों में मलेरिया के उपद्रव हैं - तीव्र रक्ताल्पता, यकृत फेलयर और तीव्र रीनल फेलयर ।

मलेरिया के मुख्य लक्षण क्या हैं ?
मलेरिया के लक्षण फ्लू और अन्य ज्वरों से मिलते जुलते रहते हैं । फिर भी तुरन्त निदान कर चिकित्सा की अपेक्षा आवश्यक होती है । इसके प्रमुख लक्षण ये हैं -
* ठंड और कंपन के साथ मध्यम तेज बुखार, जो 2 -4 दिन एकान्तर में आता है । खूब पसीना आना, मलेरिया का सूचक है ।
* तेज सिरदर्द और पेट का दर्द भी सामान्यतया होता है ।
* भूख न लगना और वमन भी हो सकते हैं ।
* लीवर की असामान्यता के कारण रक्त शर्करा कम हो सकती है, जिससे हाइपोग्लाइसिमिया के लक्षण प्रकट होते हैं ।
* चिकित्सा न करने पर तीव्र मलेरिया गहरे भूरे रंग का मूत्र आता है । इसे रीनल फेलयर होकर मूत्र में रक्त उत्सर्जन होने लगता है । इसे हिमोग्लोबिनूरिया कहते हैं ।
* जिनमें झटका, मूर्च्छा या बेहोशी या असामान्य व्यवहार हो उनमें सेरिब्रल मलेरिया का संदेह किया जाता है ।

क्षेत्र परीक्षण

मलेरिया के निदान के लिए अनेक एंटीजन-आधारित डिपस्टिक (अंग्रेजी: dipstick) परीक्षण या मलेरिया रैपिड एंटीजन टेस्ट (अंग्रेजी: Malaria Rapid Antigen Tests, मलेरिया त्वरित एंटीजन परीक्षण) भी उपलब्ध हैं। इन्हें रक्त की केवल एक बूंद की आवश्यकता होती है, और सिर्फ 15-20 मिनट में ही परिणाम सामने जाता है, प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं होती है। ये सूक्ष्मदर्शी जांच से थोडे कमतर माने जाते है। लेकिन जिन क्षेत्रों में सूक्ष्मदर्शी जांच की सुविधा उपलब्ध नहीं होती या परीक्षकों को मलेरिया के निदान का अनुभव नहीं होता वहाँ प्रभावित क्षेत्र में जा कर रक्त की एक बून्द से एण्टीजन परीक्षण कर लिया जाता है। सबसे पहले इन परीक्षणों का विकास पी. फैल्सीपैरम के किण्वक ग्लूटामेट डीहाइड्रोजनेज़ को एंटीजन के रूप में प्रयोग करके किया गया।] लेकिन जल्दी ही एक अन्य किण्वक लैक्टेट डीहाड्रोजनेज़ का प्रयोग करके ऑप्टिमल-आईटी (अंग्रेजी: Optimal-IT) नामक परीक्षण का विकास किया गया।ये किण्वक रक्त में अधिक समय तक मौजूद नहीं रहते और परजीवी का खात्मा हो जाने पर ये भी रक्त से निकल जाते हैं, अतः इन परीक्षणों का उपयोग इलाज की सफलता या विफलता जानने के लिये भी किया जाता है। ऑप्टिमल-आईटी फैल्सीपैरम और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया में अन्तर भी कर सकता है। यह पी. फैल्सीपैरम का 0.01 प्रतिशत और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया परजीवियों का 0.1 प्रतिशत तक रक्त में निदान कर सकता है। इसके अतिरिक्त पी. फैल्सीपैरम विशिष्ट हिस्टिडीन-भरपूर प्रोटीनों (अंग्रेजी: P. falciparum specific histidine-rich proteins) पर आधारित पैराचैक-पीएफ (अंग्रेजी: Paracheck-Pf) रक्त में 0.002 प्रतिशत तक मलेरिया परजीवी का निदान कर सकता है, लेकिन यह फैल्सीपैरम और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया में अन्तर नहीं कर पाता है।इनके अतिरिक्त पॉलीमरेज़ कड़ी प्रतिक्रिया (अंग्रेजी: polymerase chain reaction, PCR) का प्रयोग करके और आणविक विधियों के प्रयोग से भी कुछ परीक्षण विकसित किये गए हैं, लेकिन ये अभी तक महंगे हैं, और केवल विशिष्ट प्रयोगशालाओं में ही उपलब्ध हैं। सस्ते, संवेदनशील तथा सरल परीक्षणों का विकास करने की अब भी आवश्यकता है, जिनका प्रयोग क्षेत्र में मलेरिया के निदान के लिए किया जा सके।

इसका निदान कैसे होता है ?
* मलेरिया का मुख्य निदान रक्त के स्मिपर में मलेरिया पैरासाइट की उपस्थिति से हो जाता है । इससे प्रकार और पैरासाइट के लोड का भी पता चल जाता है ।
अन्य रक्त परीक्षा में इनकी आवश्यकता पड़ सकती है -
* रक्ताल्पता के हिमोग्लोबियर स्तर
* लीवर की क्षति जानने के लिए लीवर एन्जाइम
* गुर्दे के प्रभाव जानने के लिए रीनल फंक्शन टेस्ट
* लीवर और प्लीहा की वृद्धि जानने के लिए सोनोग्राफी
* हाइपोग्लाइसिमिया होने पर रक्तशर्करा परीक्षा
* प्राथमिक निदान के लिए आजकल मलेरिया एंटीजन भी डिप स्टिक भी उपलब्ध है । इससे एक बूंद रक्त से निदान किया जाता है ।
बीमारियों एचआईवी-एड्स और मलेरिया के बीच संबंध हैं-   
  
 कीनिया में काम कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है  एक विज्ञान पत्रिका में छपे शोध के अनुसार जब कोई व्यक्ति मलेरिया से पीड़ित होता है तो उसकी प्रतिरोध क्षमता कम हो जाती और यदि ऐसे वक्त वह एचआईवी पीड़ित से शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे संक्रमण होने का ज़्यादा ख़तरा रहता हैसाथ ही जो लोग एचआईवी से पीड़ित होते हैं, उन्हें मलेरिया होने की ज्यादा संभावना रहती है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि दोनों बीमारियाँ जिस तरह से एक दूसरे को बढ़ावा देती है, उससे अफ़्रीका में इन संक्रमणों का विस्तार हो रहा है उनका कहना है कि कीनिया के शहर किसुमू में एचआईवी पीड़ितों की संख्या में पाँच फ़ीसदी बढ़ोत्तरी का ज़िम्मेदार मलेरिया है
उसकी चिकित्सा कैसे की जाती है?
मलेरिया की चिकित्सा के लिए विशेष एंटीवायोटिक होते हैं । साधारणतया इसे एंटी मलेरिया कहते हैं । इन्हें विशिष्ट रूप में 3 दिन तक दिया जाता है । प्लास्मोडियम वायवेक्स का निदान होने पर, अथवा मलेरिया की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए 14 दिन तक इसे दिया जाता है । मुख्य एंटी मलेरिया दवाएँ ये हैं -
* प्रमुख एंटी मलेरिया क्लोरोक्विन, क्वीनिन और मेपलोक्विन
* निवारणार्थ - प्राइमक्वीन
* प्रतिरोधात्मक नवीन एटीमलेरिया - अर्टिसुनेट और अर्टेमेथर
सहायक चिकित्सा में शर्करा सन्तुलन के लिए अन्तर्शिरा डेक्सट्रोज, लौह पूरक, लीवर एन्जाइम, रक्त ट्रान्सफ्यूजन आदि दिया जाता है।
मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में छिडकाव के लिए लगभग 12 दवाओं को मान्यता दी है। इनमें डीडीटी के अलावा परमैथ्रिन और डेल्टामैथ्रिन जैसी दवाएँ शामिल हैं, खासकर उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर डीडीटी के प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है
मानव जीनोम पर मलेरिया के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन किया गया है हंसिया-कोशिका रोग के संबंध में। इस रोग में  हीमोग्लोबिन के बीटा-ग्लोबिन खंड को बनाने वाली जीन एच.बी.बीमे उत्परिवर्तन हो जाता है। सामान्यतया बीटा ग्लोबिन प्रोटीन के छठे स्थान पर एक ग्लूटामेट अमीनो अम्ल होता हैजबकि हंसिया-कोशिका रोग में इसकी जगह वैलीन अम्ल  जाता है। इस बदलाव से एक जलसह अमीनो अम्ल के स्थान पर जल-विरोधी अम्ल  जाता है जिससे हीमोग्लोबिन के अणु परस्पर बंध जाने को प्रोत्साहित होते हैं। हीमोग्लोबिन अणुओं की लड़ियाँ बन जाने से विकृत लाल रक्त कोशिका हंसिया का आकार ग्रहण कर लेती हैं। इस तरह से विकृत हुई रक्त कोशिकाएँ रक्त से हटा ली जाती हैं और विनष्ट कर दी जाती हैं.
 सिकल सेल एनिमिया रोगी को मलेरिया नहीं होताहै । क्या यह सच है ?
 सिंकल सेल एनिमिया रोगी को संक्रमित मच्छर काटने पर नहीं होता । इनमें लक्षण बहुत मन्द होते हैं और विशषतः यह घातक नहीं होता । इसके कई कारण हो सकते है, सबसे प्रमुख है कोशिकाओं में सिकलिंग होती है । यह माना जाता है कि पैरासाइट कोशिकाओं में अम्ल उत्प करते हैं । इस अम्ल के कारण सिकलिंग होकर रक्तकण नष्ट हो जाते हैं साथ ही उसमें उपस्थित पैरासाइट भी समाप्त हो जाते हैं । इसका दूसरा स्पष्टीकरण यह है कि पैरासाइट कम ऑक्सीजन में जीवित नहीं रह सकते । जोकि प्लीहा में भी सामान्य बात है । यही कारण है कि इन रोगियों में मलेरिया से रक्षात्मक उपाय होता है ।
       मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यद्यपि अभी तक सफलता नहीं मिली है। पहली बार प्रयास 1967 में चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया गया। इसकी सफलता दर 60% थी। एसपीएफ66 (अंग्रेजीSPf66पहला टीका था जिसका क्षेत्र परीक्षण हुआयह शुरू में सफल रहा किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया। आज आरटीएस,एसएएस02 (अंग्रेजीRTS,S/AS02Aटीका परीक्षणों में सबसे आगे के स्तर पर है। आशा की जाती है कि पीफैल्सीपरम के जीनोम की पूरी कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का विकास एवं परीक्षण करने में आसानी होगी।
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